बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत बीए सेमेस्टर-1 संस्कृतसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत
प्रश्न- कालिदास से पूर्वकाल में संस्कृत काव्य के विकास पर लेख लिखिए।
उत्तर-
कालिदास से पूर्वकाल में संस्कृत काव्य का विकास
रामायण तथा पुराणकाल के उत्तर एवं कालिदास से पूर्व का समय संस्कृत काव्य के लिए अन्धकारमय है। महाकवि कालिदास की कृतियाँ साहित्यिक दृष्टि से उच्चतम कोटि की हैं। इनमें काव्यशास्त्रीय समस्त गुण अनुस्यूत हैं। कवि का व्यञ्जना-विलास पूर्ण विकास पर पहुँचा है। उनकी रचनाओं में विभिन्न छन्दो तथा अलङ्कारों का अत्यन्त चतुरता से प्रयोग किया गया है। वे सभी कविता के कमनीय कलेवर को कान्त बना रहे है।
कालिदास की इस उत्कृष्टतम शैली के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुराणकाल से उत्तर तथा कालिदास से पूर्व ही महाकाव्यों की रचना हुई है। किन्तु दुख की बात यह है कि इस काल में रचे गये काव्य इस समय उपलब्ध नहीं है। सुभाषित ग्रन्थों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि पाणिनि ने
'पाताल विजय' और 'जाम्बवती विजय' नामक काव्य लिखे हैं। कतिपय विद्वान वैयाकरण पणिनि को काव्य. प्रणेता पाणिनि से भिन्न मानते हैं, परन्तु अधिकांश विद्वान् इससे सहमत नहीं हैं। विद्वानों का विचार है कि पाणिनि वैयाकरण होते हुए भी सरस- हृदय थे तथा वे सहृदयसंवेद्य काव्य रचना में पूर्ण सक्षम थे।
सदुक्तिकर्णामृत में कवि प्रशंसा के सन्दर्भ में दिये गये एक पद्य में सुबन्धु, कालिदास, भारवि, भवभूति के साथ दाक्षीपुत्र (पाणिनि) का भी उल्लेख है। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने पाणिनि को दाक्षीपुत्र के रूप में सम्बोधित किया है। पाणिनि का काव्य अत्यन्त रोचक एवं मधुर है। उनके काव्य में उत्प्रेक्षादि अलङ्कारों की छटा दर्शनीय है। प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन सजीव एवं हृदयग्राही है।
पाणिनि की एक सरस तथा सुन्दर रचना इस प्रकार है
"गतेऽर्धरात्रे परिमन्दमन्दं गर्जन्ति यत्प्रावृषिकालमेघाः।
अपश्यती वत्समिवेन्दुबिम्बं तच्छवरी गौरिव हुँकरोति।"
पतञ्जलि के महाभाष्य से यह स्पष्ट है कि -
वररुचि (कात्यायन) ने भी एक काव्य लिखा था। पिङ्गल ने छन्द शास्त्र पर छन्द सूत्र लिखा है। इस ग्रन्थ में प्रयुक्त छन्द प्रायः प्रेयसी के विशेषण के रूप मे (कुटिलगति, मञ्जुभाषिणी, सुन्दरी, वियोगिनी, चारुहासिनी) विद्यमान हैं जोकि काव्यात्मक लालित्य को अभिव्यञ्जित कर रहे हैं।
उपर्युक्त तथ्यों से ज्ञात होता है कि महाकवि कालिदास के पूर्व संस्कृत काव्यकला पर्याप्त समुन्नत हो चुकी थी, परन्तु वे कवि तथा उनके काव्य किन्हीं विशेष कारणों से विस्मृत हो जाने के कारणवश प्राप्त न हो सके। अनेक काव्य-ग्रन्थों के नष्ट हो जाने से यह ज्ञात होता है कि ईसा के 200 वर्ष पूर्व से 200 ई0 तक के समय में काव्य विकसित होता रहा है। तत्कालीन शिलालेखों से भी काव्य के विकास का पता चलता है। शिलालेखो में लिखे गये श्लोक उत्तम काव्यशैली के प्रतीक है। इनमें कठिन शब्दों से युक्त समस्त पदावली के दर्शन होते हैं।
रुद्रदामन का गिरनार का लेख तथा हरिषेण लिखित समुद्रगुप्तप्रशस्ति इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। वत्समट्टि तो अलङ्कृत काव्यशैली के प्रतिनिधि कवि हैं। इन्होंने गौड़ी रीति का प्रयोग किया है। जिसका उदाहरण इस प्रकार है -
"चलत्पताकान्यवलासनाथान्यत्यर्थशुक्लान्यधिकोन्त्रतानि।
तडिल्लताचित्रसिताम्रकूटतुल्योपमानानि गृहाणि यत्र॥"
इस श्लोक की तुलना कलिदास कृत मेघदूत के निम्नलिखित श्लोक से की गई है -
"विद्युत्वन्तं सलिलवनिताः सेन्द्रचापं सचित्राः,
सङ्गीताय प्रहतमुरजाः खिग्धगम्भीरघोषम्।
अन्तस्तोयं मणिमयभुवस्तुङ्गभ्रंलिहाग्राः,
प्रसादास्त्वा तुलयितुमलं यत्र तैस्तैर्विशेषैः॥'
इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि कालिदास की रचना अपने से पूर्ववर्ती कवियों से प्रभावित है।
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